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कला इतिहास – What is Art? (भारतीय चित्रकला, कला संस्कृति एवं सभ्यता) 

कला इतिहास

हमारे देश में कला इतिहास एक बौद्धिक अनुशासन है, जो कला इतिहास के कुछ उदाहरण इस दिशा में उपलब्ध है उनमें उन विदेशी यात्रियों के विवरण अधिक है, यही यात्री भारत की संस्कृति व धर्म के आकर्षण से यहां आए थे. “कला” जीवन व संस्कृति का आवश्यक अंग है. केवल इसी हेतु इनके विवरणों में यहां की कला पर भी कुछ ध्यान दिया हुआ है. तारानाथ जी अवश्य ऐसा यात्री था जिसने भारत की कलाकृतियों को केंद्र बिंदु मानकर बहुत कुछ लिखा है. वास्तव में वह बौद्ध लामा के रूप में तिब्बत से भारत आया था. परंतु उस समय प्रचलित “नागपंथ” से वह इतना प्रभावित हुआ कि यहां आकर उसने धर्म परिवर्तन कर लिया. उसके विकसित मस्तिष्क का यह महत्वपूर्ण उदाहरण है और शायद इसी कारण उसके लेखों में पूर्वाग्रह बहुत काम है.अन्यथा, जो कुछ भी यहां की कला के संबंध में अब तक लिखा गया है उनमें या तो धर्मांधता व यहां की सांस्कृतिक श्रेष्ठता के कारण बहुत कुछ अतिश्योक्ती है, या फिर यहां की कला में विदेशी योगदान का महत्व सिद्ध करने के लिए उसके विरुद्ध बहुत अधिक पूर्वाग्रह से काम लिया गया है. कुछ हमारी परंपरा भी ऐसी रही है कि कला- साधन को धर्म- साधन के अंतर्गत ही लिया गया जिसमें ‘अहम्’ का निराकरण ही प्रधान रहा है. उसके फल स्वरुप हमारे कलाकार आत्म प्रचार से बहुत दूर रहे.

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कला इतिहास

प्रथम कलाकृतियां

प्रथम बार मुगल साम्राज्य में ही कलाकृतियों को नामांकित करने की प्रथा प्रारंभ हुई. जिसका अल्पाधिक प्रभाव पहाड़ी व दक्षिणी कला पर दिखाई देता है. कही कही मंदिरों के दान पात्रको में शिल्पी का नाम भी दिया गया है, इससे अधिक कुछ नहीं. ऐसी स्थिति में भारत का कला इतिहास ना केवल एक महत्वपूर्ण अनुशासन बन जाता है, वरन वह अत्यंत दुरूह भी है, और इस दिशा में किया गया प्रत्येक प्रयास सराहनीय है. अब कला का इतिहास का महत्व और भी बढ़ गया है. कला का जो भी भंडार है वह आनंद सागर के समान विशाल है. भारतवर्ष के अनेक राज्यों में समय-समय पर अनेक कला शैलियां विकसित हुई है. मुगल, राजस्थानी तथा पहाड़ी राज्यों में विकसित कला शैलियों का पूर्ण विवेचन उत्तर मध्यकाल की भारतीय चित्रकला को गौरव प्रदान करता है. एक ऐसी वस्तु जो जीवन से अलग हो, वास्तव में वे नहीं जानते कि कला सीधे जीवन के तले में घुसकर देखती है और उसके रहस्य की परतें उखाड़ फेंकती है. कला के अतिरिक्त कोई ऐसा माध्यम नहीं है जो जीवन को भेदकर उसके मूल को प्रस्तुत कर सके. भारतीय कला का भी यही आदर्श रहा है. अजंता, एलोरा, बाघ, सिंहगिरी, सत्तनवासल, तुर्किस्तान बामिया, कश्मीर, पाल, जैन, मुगल, राजस्थानी व पहाड़ी चित्रकला में भारतीय जीवन को अत्यंत गहराई के साथ प्रस्तुत किया गया है. भारतीय कला में आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता रही है. एक ही सूत्र में बंधी होने पर भी हर काल की भारतीय चित्रकला अपना पृथक अस्तित्व रखती है. 

संस्कृति तथा कला

किसी भी देश की संस्कृति उसकी आध्यात्मिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मक उपलब्धियों की प्रतीक होती है. यह संस्कृति उस संपूर्ण देश के मानसिक विकास को सूचित करती है. किसी देश का सम्मान तथा उसका अमर- गान उस देश की संस्कृति पर ही निर्भर करता है. संस्कृति का विकास किसी देश के व्यक्ति की आत्मा तथा शारीरिक क्रियाओं के समन्वय एवं संगठन से होता है. संस्कृति का रूप देश तथा काल की परिस्थितियों के अनुसार ढलता है. भारतीय संस्कृति का इतिहास बहुत विस्तृत है. भारतीय संस्कृति का विकास लगभग 5 वर्षों में हुआ और इस संस्कृति ने विविध क्षेत्रों में इतना उच्च विकास किया कि संसार आज भी भारतीय संस्कृति के अनेक क्षेत्रों से प्रेरणा ग्रहण करता है. संस्कृति का रचनाक्रम भूत, वर्तमान तथा भविष्य में निरंतर संचालित होता रहता है.

मानव संस्कृति में कलात्मक तथा आध्यात्मिक विकास का उतना ही महत्व है जितना वैज्ञानिक उपलब्धियों का कलात्मक विकास में मुख्यतः साहित्य, कला अथवा शिल्प, स्थापत्य, संगीत, मूर्ति, नृत्य एवं नाटक का विशेष महत्व है, . अतः किसी देश की संस्कृति का अध्ययन करने के लिए उस देश की कलाओं का ज्ञान होना परम आवश्यक है. कला के द्वारा देश के, समाज दर्शन तथा विज्ञान की यथाचित छवि प्रतिबिंबित हो जाती है. “दर्शन यदि मन की क्रिया है तो विज्ञान शरीर की क्रिया है,परंतु कला मानव- आत्मा कि वह क्रिया है जिसमें मन तथा शरीर दोनों की अनुभूति निहित है”. अतः कला मानव संस्कृति का प्राण है.

कला का उद्देश्य

 प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जीवन के चार प्रयोजन बताए गए हैं – पहला है अर्थ, दूसरा काम, तीसरा धन तथा चौथा है मोक्ष. अतः मानव की कलाओं का उद्देश भी इन्हीं साधनों की प्राप्ति माना गया है. 

विष्णुपुराण में भी कहा गया है कि “कला के द्वारा धर्म, काम, अर्थ तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है”. इसी प्रकार भारत में ‘कला के लिए कला’ न होकर संपूर्ण जीवन के लिए कला को साधन माना गया है. कला संस्कृति का वह महत्वपूर्ण अंग है जो मानव मन को प्रांजल, सुंदर तथा व्यवस्थित बनाती है. भारतीय कला में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति सरल ढंग से की गई है. कलाकार की कला- कृतियां संस्कृति के परंपरागत रूप को दर्शाती है.

भारतीय चित्रकला की विशेषताएं

भारतीय चित्रकला तथा अन्य कलाएं अन्य देशों की कलाओं से भिन्न है. भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं जो भारतीय कला को अन्य देशों की कलाओं से अलग कर देती है.जैसे की- धार्मिकता, योगी पूजन, प्राकृतिक,नाम, आदर्शवादी, कल्पना, प्रतीकात्मकता, आकृतियां तथा मुद्राएं, राजा तथा देवताओं के अंग, रेखा तथा रंग आदि.

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कला संस्कृति एवं सभ्यता

धार्मिकता – भारतीय कलाओं का जन्म ही धर्म के साथ हुआ है और हर धर्म ने कला के माध्यम से ही अपनी धार्मिक मान्यताओं को जनता तक पहुँचाया है. चित्रकला तथा अन्य कलाओं को परम आनंद का साधन माना गया है.

प्राकृतिक यह साधक की दृष्टि से –  भारतीय चित्रकला तथा अन्य शिल्पो में सांसारिक सादृश्य या बाहरी जगत की समानता का महत्व नहीं है बल्कि मनुष्य के स्वभाव या अंतःकरण को गहराई तथा पूर्णता से दिखाने का अत्यधिक महत्व है. गहन- भावना या अंतःकरण की इसी छवि को चित्रकार लोगों के समान प्रस्तुत करता है.

प्रकृति का समन्वय तथा आदर्शवादीता – भारतीय कलाकार संपूर्ण चेतन तथा अचेतन जगत को सृष्टि का अंग मानता है. इसी से उसकी रचनाओं में मानवीय तथा प्राकृतिक जगत का अनोखा रूप दिखाई पड़ता है. मानवी तथा देवी प्राकृतशक्तियां का निरूपण, पुरुष तथा नारी का सम्मान, कठोरता एवं कर्कक्षता, कोमलता एवं निर्मलता आदि के अनेक विरोधी अथवा पूरक तत्वों का भारतीय चित्रकला में समन्वय प्राप्त होता है. दुर्गा के रूप में नारीत्व, पवित्रता, वीरता तथा कोमलता का समन्वय दिखलाई पड़ता है. इसी तरह गणेश, हनुमान, गरुड़ आदि रूपों में मानव, पशु या पक्षी सुलभ रुक्षता आदि का समन्वय दिखाई पड़ता है. प्राकृतिक वनस्पतियों, पेड़- पौधे  फूल, पत्तियों आदि की भव्य भावपूर्ण तथा सजीव छवि अंकित की गई है. भारतीय कला में सौंदर्य का आधार प्राकृतिक जगत से प्रेरित है. उदाहरण के लिए-  नेत्रों की रचना कमल, मृग अथवा खंजन तथा भुजाओं की रचना मृणाल तथा मुख् की रचना चंद्र या कमल तथा अधरों की रचना बिंबाफल के समान की गई है.

आकृतियां तथा मुद्राएं – भारतीय कला में आकृतियों तथा मुद्राओं को आदर्श रूप प्रदान करने के लिए अतिशयोक्ति अथवा चमत्कारपूर्ण तथा आलंकारिक रूप प्रदान किए गए हैं. यही कारण है कि अधिकांश भारतीय चित्रकला तथा मूर्तिकला में भारत की शास्त्रीय नृत्य शैलियों की आकृतियों की रचनाएं यथार्थ की अपेक्षा भाव अथवा गुण के आधार पर की गई है. मुद्रा में भावों को दर्शाया गया है. अजंता शैली की मानव आकृतियां तो अपनी भावपूर्ण नृत्य मुद्राओं के कारण जगत प्रसिद्ध है. राजपूत था मुगल शैलियों में भी विविध नृत्य मुद्राओं का समावेश किया गया है. मुद्राओं के द्वारा अनेक भाव सफलता से दर्शाए गए हैं, जैसे-  ध्यान, उपदेश, क्षमा, भिक्षा, त्याग  तपस्या, वीरता, क्रोध, विरह, कांटा निकालने की पीड़ा, प्रतीक्षा, एकाकीपन आदि. मानव मन के भावों को बड़ी सरल तथा स्वाभाविक मुद्राओं के द्वारा मूर्तिमान किया गया है. भारतीय कला में मुद्राओं का आधार भरत मुनि द्वारा रचित “नाट्य-शास्त्र” था.

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आकृतियां तथा मुद्राएं

रेखा तथा रंग –  भारतीय चित्रकला रेखा प्रधान है. चित्र की आकृतियां प्रकृति एवं वातावरण सबको निश्चित सीमा रेखा में अंकित किया गया है. इन आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया गया है. रंगों का प्रयोग अलंकारिक या कलात्मक योजना पर आधारित है या रंगों को सांकेतिक आधार पर प्रयोग किया गया है.

कला अध्ययन के स्रोत

कला अध्ययन के स्रोत से अभिप्राय उन साधनों से है जो प्राचीन कला- इतिहास को जानने में सहायता देते हैं. भारत की चित्रकला के अध्ययन के स्रोत निम्न श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं, जैसे – धार्मिक ग्रंथ(Religious books), ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical books), शिलालेख (Inscriptions), मोहरे तथा मुद्राएं ( seals and coins), प्राचीन खंडहर (Old Ruins), यात्रियों के वृतांत (Accounts of Travellers), आत्म-कथाएं या राजाओं का इतिहास(Autobiography Or History of Kings). 

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