पूर्व बौद्ध काल
पूर्व बौद्धकाल में चित्रकला का विशेष विकास प्रमाणित नहीं है, Purv bouddh kaal chitrakala क्योंकि भगवान बुद्ध ने स्वयं अपने अनुयायियों को चित्रकला की ओर प्रवृत्त ना होने का उपदेश दिया था. इस काल की चित्रकला के प्रमाण प्राप्त नहीं है, और केवल इस काल के बौद्ध साहित्य से ही समाज में चित्रकला के प्रचलन का ज्ञान होता है.
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बौद्ध कालीन साहित्य में चित्रकला का उल्लेख इस प्रकार
माना जाता है कि जोगीमारा के अतिरिक्त और भी चट्टानें काटकर गुफा मंदिरों का निर्माण किया गया होगा, और शायद उनको भित्ति चित्रों से सजाया गया होगा. परंतु भारतवर्ष की अत्यधिक वर्षा में जलवायु के कारण वह सभी नष्ट हो गए होंगे. इस समय भवनों या मकानों के निर्माण में कच्ची ईंटों तथा लकड़ी का प्रयोग किया जाता था. जिसके कारण यह भवन शीघ्र नष्ट हो गए होंगे. ऐसा भी अनुमान है कि इन मकानों की दीवारों का धरातल प्लास्टर से लेप दिया जाता था, और अधिकतर चित्रों से भित्तियों को सजाया जाता था. परंतु इस समय के भवनों में स्थायित्व नहीं था. इस कारण इन दोनों में से किसी के भी अवशेष प्राप्त नहीं हो सके हैं. जिनसे चित्रकला का समुचित ज्ञान प्राप्त हो सके. और इस समय की जोगीमारा गुफा की चित्रकारी के उदाहरणों से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह प्रागैतिहासिक पाषाण युग की असंयत चित्रकला के समान ही विकसित रूप में थी. और दूसरी ओर कुछ ऐसे साहित्यिक प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि ईसा से कई शताब्दी पूर्व ही भारतवर्ष में चित्रकला खूब विकसित हो चुकी थी. इस समय की चित्रकला का अध्ययन करने के लिए वैदिक साहित्य तथा प्राचीन बौद्ध साहित्य से प्राप्त चित्रकला से संबंधित लेखों को देखा गया है. इस समय के ग्रंथों तथा महाकाव्यों में स्थान- स्थान पर चित्रकला का उल्लेख आया है.
चित्रलक्षण ग्रंथ
चित्रकला के जन्म से संबंध में भारतवर्ष में एक सुंदर पौराणिक कथा परंपरागत रूप से प्रचलित है. जिसका चित्र लक्षण नामक ग्रंथ में संकलन किया गया है. यह ग्रंथ तिब्बत से तंजूर ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है. यह ग्रंथ 3 अध्याय तक ही प्राप्त है. इसके अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि, यह पूर्व रचनाएं इस ग्रंथ में मंगलाचरण में यह कथा बताई गई है कि, यह ग्रंथ विश्वकर्मा तथा राजा नग्नजीत (गांधार सीमा प्रांत के राजा) द्वारा निर्दिष्ट चित्रकला के लक्षणों का संग्रह है. इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय से ज्ञात होता है कि राजा नग्नजीत विश्वकर्मा का शिष्य था. और ब्रह्मा के समक्ष जब राजा ने चित्र विद्या की दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की तो ब्रह्मा ने उसे विश्वकर्मा के पास भेज दिया. विश्वकर्मा ने उसको चित्रकला में प्रशिक्षित किया और अच्छा शिक्षण दिया.
चित्रकला की उत्पत्ति की कथा
इसी ग्रंथ के प्रथम अध्याय में चित्रकला की उत्पत्ति की कथा आती है — पूराकाल में राजा भयजीत के राज्य में अकस्मात एक ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु हो जाती है. तब पुत्र शोक में व्याकुल ब्राह्मण राजा के पास गया और उसने राजा को यह प्रताड़ना दी, कि यदि वह क्षत्रिय है और धर्म तथा ब्राह्मण पर उसको विश्वास है, तो वह उसके मरे हुए पुत्र को जीवन दे. यह सुनकर धर्मात्मा राजा दुखी हो जाते हैं. उसने योगबल से यमराज को प्राप्त किया, और मृत ब्राह्मण पुत्र को जीवित करने की याचना की. प्रार्थना स्वीकार होने पर यमराज से राजा का युद्ध हुआ और राजा की पराजय हुई. अंत में ब्रह्मा स्वयं प्रकट होते हैं और भयजीत से मरे हुए पुत्र का चित्रण अंकित करने का आदेश देते हैं. इस चित्र में ब्रह्मा ने जीवन संचार कर दिया और ब्रह्मा ने भयजीत से कहा तुमने नग्न प्रेतों पर विजय प्राप्त कर ली है. अतः आज से तुम्हारा नाम नग्नजीत हुआ. तुम्हारी यह रचना सृष्टि का पहला चित्र है. मृत्यु लोक में इस कला के तुम पहले आचार्य माने जाओगे, और तुम्हारी पूजा भी की जाएगी.
चित्रलक्षण नामक ग्रंथ में चित्रकला के तत्वों पर प्रकाश डाला गया है. विभिन्न आकृतियों के अनुपातो तथा रचना विधि कि इस ग्रंथ में पर्याप्त चर्चा की गई है.
ऋग्वेद
ऋग्वेद में चमड़े पर बने अग्नि देवता के चित्र का उल्लेख आया गया है. इस चित्र को यज्ञ के समक्ष लटकाया जाता था, और यज्ञ की समाप्ति पर लपेट दिया जाता था. इसी ऋग्वेद में भृगु ऋषियों के वंशजों को लकड़ी के काम में दक्ष बताया गया है. ऋग्वेद में यज्ञशालाओं के चारों ओर की चौखट पर बनी स्त्री देवियों की आकृतियों का भी उल्लेख आया है. यह देवियां उषा तथा रात्रि की प्रतीक थी.
महाभारत (600 ई. पू.से 500 ई. पू.)
महाभारत में उषा अनिरुद्ध की एक सुंदर प्रेम कथा के प्रसंग में चित्रकला का उल्लेख आया है. राजकुमारी उसने सपने में सुंदर युवराज को अपने साथ वाटिका में बिहार करते देखा और वह उससे प्रेम करने लगी थी. अतः सुबह जागकर राजकुमारी उषा उस युवराज की याद में दुखी होकर एकांत में चली गई. जब उसकी परिचारिका ” चित्रलेखा ” ( चित्रलेखा का अर्थ है एक चित्र ) को इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने समस्त देवताओं, महापुरुषों तथा उस समय के युवराजो के छवि चित्र यादों के आधार पर बनाकर, उषा के सम्मुख प्रस्तुत कर दिए. उषा ने सपने में देखे राजकुमार का चित्र पहचान लिया. यह चित्र कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध का था, और इस प्रकार दुखी राजकुमारी यह छवि चित्र देखकर खुश हो गई. इस प्रकार की और भी कथाएं हैं, जिनमें स्मृति से व्यक्ति चित्र बनाने की चर्चा भी आई है.
महाभारत में सत्यवान के द्वारा बाल -काल में एक घोड़े का भित्ती पर चित्र अंकित करने का प्रसंग भी आता है. भारत के धर्मराज युधिष्ठिर की सभा का एक रोचक वर्णन भी आया है. इनके भवन में एक दीवार पर एक ऐसा चित्र अंकित किया गया था, जिसमें एक सच्चा रहस्यमय दरवाजा खुला दिखाई पड़ता था. इस अनोखे भवन को मयसुर ने बनाया था.
रामायण ( 600 ई. पू. से 500 ई. पू.)
रामायण काल में चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कलाओ का विकास हो चुका था. महामुनि ने बालकांड के छठे चरण में अयोध्या वर्णन के साथ अंगराज, केशसज्जा, स्त्रियों के कपोलो पर पत्रावली का श्रंगार, राजमहलो, रथो तथा पशुओं की साज-सज्जा का जो उल्लेख किया है, उससे समाज में प्रचलित कला के उच्च स्थान और व्यवहारिक रूप की प्रतिस्थापना होती है. रामायण में राम को संगीत, वाघ तथा चित्र विद्या आदि मनोरंजन के साधनों का ज्ञाता बताया गया है. अश्वमेघ यज्ञ के समय राम ने अपनी पत्नी सीता की स्वर्ण प्रतिमा का निर्माण कराया था. यह प्रतिमा मय नामक शिल्पी ने बनाई थी. रावण की लंकापुरी में सीता की खोज के समय हनुमान को एक चित्रदीर्घा तथा चित्रित क्रीड़ागृह देखने को मिले थे. रानी कैकेयी के चित्रित भवन की चर्चा से भी कला रुचि का ज्ञान होता है. बालि तथा रावण के शवों के लिए जो पालकिया बनवाई गई थी, वह भी चित्रित की गई थी. रावण के पुष्पक विमान को भी चित्रसज्जा से युक्त बताया गया है. इसमें हाथियों के मस्तक और सुंदरियों के कपोलो पर चित्रकारी की जाती थी. राम के राजप्रसाद की दीवारों पर भित्तिचित्रों की रचना भी की गई थी.
चित्रकला के छ: अंग
जयपुर नरेश जयसिंह प्रथम की सभा के राजपुरोहित पंडित यशोधर ने 11वीं शताब्दी में ‘कामसूत्र’ की टीका ‘जयमंगला’ नाम से प्रस्तुत की. ‘कामसूत्र’ के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर ने आलेख्य या शिल्प (चित्रकला) के छह अंग बताए हैं जो कि इस प्रकार है —-
शिल्प (चित्रकला) के छ: अंग यह है
- रूपभेद – दृष्टि का ज्ञान
- प्रमाण – ठीक अनुपात, नाप तथा बनावट
- भाव – आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे
- लावण्ययोजना – कलात्मकता तथा सौंदर्य का समावेश
- साद्रश्य – देखे हुए रूपों की समान आकृति
- वर्णिकाभंग – रंगो तथा तूलिका के प्रयोग में कलात्मकता
प्राचीन भारतीय कला में इन 6 अंगों का पालन आवश्यक समझा जाता था. अजंता, बाघ आदि की चित्रकारी में चित्रकला के इन 6 अंगों का पालन किया गया है. कला सिद्धांतों के अनुसार इन 6 अंगों का ठीक प्रदर्शन किए बिना चित्र निर्जीव सा रहता है. इन 6 अंगों का पालन करना जरूरी है.
FAQ
Q. बौद्ध काल की चित्रकला का समय क्या रहा है?
A. 600 ई. पू से 500 ई. पू.
Q. चित्रकला की उत्पत्ति की कहानी क्या है?
A. ब्रह्मा स्वयं प्रकट होते हैं और भयजीत से मरे हुए पुत्र का चित्रण अंकित करने का आदेश देते हैं. इस चित्र में ब्रह्मा ने जीवन संचार कर दिया और ब्रह्मा ने भयजीत से कहा तुमने नग्न प्रेतों पर विजय प्राप्त कर ली है. अतः आज से तुम्हारा नाम नग्नजीत हुआ. तुम्हारी यह रचना सृष्टि का पहला चित्र है. मृत्यु लोक में इस कला के तुम पहले आचार्य माने जाओगे, और तुम्हारी पूजा भी की जाएगी.
Q. बौद्ध कला का विकास कब हुआ?
A. 600 ई. पू. से 500 ई. पू. . माना जाता है कि जोगीमारा के अतिरिक्त और भी चट्टानें काटकर गुफा मंदिरों का निर्माण किया गया होगा, और शायद उनको भित्ति चित्रों से सजाया गया होगा. परंतु भारतवर्ष की अत्यधिक वर्षा में जलवायु के कारण वह सभी नष्ट हो गए होंगे.
Q. भारत में मूर्तिकला का आरंभ कब से माना जाता है?
A. अश्वमेघ यज्ञ के समय राम ने अपनी पत्नी सीता की स्वर्ण प्रतिमा का निर्माण कराया था. यह प्रतिमा मय नामक शिल्पी ने बनाई थी.
इन्हें भी देखे
- बौद्ध कला के बारे में जाने – ” Click here “
- वैदिक काल तथा कला – “ Click here “
- प्रागैतिहासिक काल तथा कला – “ Click here “